आज का विचार

जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमे रसधार नहीं वो ह्रदय नहीं वह पत्थर है, जिसमे स्वदेश का प्यार नहीं

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

नर हो न निराश करो मन को- मैथिली शरण गुप्त

नर हो न निराश करो मन को


कुछ काम करो कुछ काम करो

जग में रह के निज नाम करो।



यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो!

समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो।

कुछ तो उपयुक्त करो तन को

नर हो न निराश करो मन को।



सँभलो कि सुयोग न जाए चला

कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला!

समझो जग को न निरा सपना

पथ आप प्रशस्त करो अपना।

अखिलेश्वर है अवलम्बन को

नर हो न निराश करो मन को।।



जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ

फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ!

तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो

उठ के अमरत्व विधान करो।

दवरूप रहो भव कानन को

नर हो न निराश करो मन को।।



निज गौरव का नित ज्ञान रहे

हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे।

सब जाय अभी पर मान रहे

मरणोत्तर गुंजित गान रहे।

कुछ हो न तजो निज साधन को

नर हो न निराश करो मन को।।

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