आज का विचार

जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमे रसधार नहीं वो ह्रदय नहीं वह पत्थर है, जिसमे स्वदेश का प्यार नहीं

मंगलवार, 6 जून 2023

 पेट के लिए पहले जन्मभूमि छोड़ी 

उसी पेट ने अब कर्मभूमि छुड़ाई


पहले तो घर परिवार खेत खलिहान बेगाने लागे

अब उसी को अपनाने को भागे


समय चक्र तो यही है भैया


हाॅल माॅल हैं बंद

घर का खाना आया पसंद

                                अजीत कुमार झा

घर जाने की आस लगाए

बैठे हैं कर्मयोगी 

तुच्छ राजनीति की चक्की में

पिस कर हो गये ये वियोगी।


धूप में नंगे पांव चलते

प्रवासी मजदूरों का रैला 

बाहर गर्मी का प्रकोप 

भीतर धधकती क्षुधा की ज्वाला।


कहते है नौनिहालों को 

जो भारत का भविष्य 

टीवी चैनलों के कमरों में बैठ कर

डिबेट द्वारा तय करते वो देश की तकदीर।


संविधान के विभिन्न पहलुओं  का

क्यों न फिर से हो निरीक्षण 

संघ राज्य व समवर्ती सूचियों का

एक बार फिर से हो परीक्षण ।


रेल की तरह सड़क परिवहन भी हो अब

संघ सरकार के संग

साथ ही इसके शिक्षा स्वास्थ्य भी हो

भारत सरकार का ही अंग।


प्रदेशों की कलुषित राजनीति का दर्द झेलती जनता

माखौल उड़ाते आरोप प्रत्यारोप कर एसी में बैठें नेता। 

                                                                अजीत कुमार झा 

   

जादी के महोत्सव का हमको है ज्ञान 

वसुधैव कुटुंबकम् का भारतीय  मंत्र सबका करें कल्याण । ।


वीर भोग्या वसुंधरा भारत माता का यह पर्व महान

तिनके तिनके का भी होता है भारत भूमि पर सम्मान। ।

गाँधी तिलक गोखले भारत माता के लाल

आजादी के ये दीवाने  न्योछावर कर दिए अपना मस्तक भाल।।


आजाद सुभाष बिस्मिल से सुशोभित यह धरती हमारी 

भगत सिंह  सुखदेव और राजगुरु अंग्रेजों पर हो गये हावी।।


अंग्रेजों की कुण्ठा पर राष्ट्रभक्तों की जीजिविषा पर गई भारी

यायावर हो आक्रांता भागे छोड़ देश हमारी।।


१५ अगस्त केवल उत्सव नहीं,  कर्तव्यों का है विधान

स्वच्छ स्वस्थ्य समृद्ध भारत का करता है आह्वान 


सामाजिक समरसता का रखना है हमें ध्यान 

हम सबको मिलकर करना है श्रेष्ठ भारत निर्माण। ।


अजीत कुमार झा 

 

विदेशी वस्तुओं का करें बहिष्कार 

स्वदेशी बनायें और अपनायें

आत्मनिर्भर भारत का हो आगाज।


तिनका तिनका जोड़ कर अपना घर हैं बनाना

विदेशी अमरबेलों से नहीं है इसे सजाना।

वर्षों से पल्लवित माँ भारती के संपदा को है बचाना

आत्मनिर्भर बन हम सबकों भारत का मान हैं बढ़ाना।

                                                                                            अजीत कुमार झा 

गुरुवार, 14 सितंबर 2017

गर्व से कहे  कि हम हिन्दी हैं और यह भाषा भारत माँ की बिन्दी है।

शनिवार, 25 फ़रवरी 2017

रूप होने पर कुरूपता का भय 
धन होने पर गरीबी का भय
गुण होने पर दोष का भय
ज्ञान होने पर अज्ञान का भय
पाकर खोने का भय
जिसके पास कुछ नहीं है उसे किस बात का भय
इस जीवन रुपी नैया को खेते हुए एक दिन भगवन के घर चला जाना है / मनुष्य का अंतिम स्थान तो उसी के पास है. 
अजीत झा

मोम का उत्तर

जलती हुई बत्ती ने एक दिन मोम से पूछा कि एक बात बताओ - जल तो मै रही हूँ, तुम क्यों पिघल रहे हो तो मोम ने जबाब दिया कि जिसे मैंने अपने आप में बसा रखा है उसे जलते देख कार दुःख तो होगा ही |

बुधवार, 24 फ़रवरी 2016

संपत्ति दो प्रकार से अर्जित की जाती है । एक जो विरासत में मिलती है और दूसरी जो खुद से अर्जित की जाती है । अर्जित की हुई संपत्ति का इतना भी गुमान नहीं होना चाहिए कि विरासत में मिली संपत्ति का तिरस्कार कर दिया जाय । ठीक इसी प्रकार हिंदी हमारी विरासत की संपत्ति है और अंग्रेजी अर्जित संपत्ति । अंग्रेजी के लिए हमें हिंदी का तिरस्कार नहीं करना चाहिए।

अजीत झा 

गुरुवार, 28 अगस्त 2014

प्रेरक व्यक्तित्व 
युग पुरुष स्वामी विवेकानंद


अजीत कुमार झा ,पुस्तकालयाध्यक्ष

समय के चपल चरण कभी विश्राम नहीं लेते है।   निरन्तर गतिशीलता , परिवर्तनशीलता , उत्थान- पतन की प्रक्रिया ही इसका स्वाभाव है, उच्चश्रृंखलता ही उसका यौवन, निर्माण ही  उसका स्मित ह्रास  एवं विध्वंस ही कुटिलपन है। समय के इसी निरन्तर प्रवाह के साथ विश्व  की सभ्यताओ ने समय- समय पर युग पुरुषों  को जन्म दिया। इन युग पुरुषों ने कालांतर में विश्व सभ्यताओं और संस्कृति के दूत की भूमिका का निर्वहन किया। कन्फ्यूशियस , पैगम्बर मुहम्मद, गुरुनानक देव, ईसा मसीह, महात्मा बुद्ध , तीर्थंकर महावीर, जरथुष्ट, दयानंद सरस्वती, चैतन्य महाप्रभु आदि ऐसे ही युग पुरुष हुए जिन्होंने सम्पूर्ण विश्व को अलौकिक प्रकाश की एक नयी दिशा दी। 

      ऐसे ही महापुरुषों में भारत माता के पावन धरती पर उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में एक दिव्य मनीषी का प्रादुर्भाव हुआ , जिसे सम्पूर्ण विश्व स्वामी विवेकानंद के नाम से जानता है। स्वामी विवेकानंद, जिन्होंने नैतिक,आध्यात्मिक एवं सामाजिक सुव्यवस्था को सुचारू रूप देकर जन-कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया। 

     स्वामी विवेकानंद का जन्म 12  जनवरी 1863 ईस्वी में कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) के एक अभिजात परिवार में हुआ था। इनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त एवं माता भुवनेश्वरी देवी थी। विश्वनाथ दत्त एक प्रसिद्ध वकील थे और माँ एक अत्यंत ही सुरुचि संपन्न अभिजात महिला थी। विवेकानंद के बचपन का नाम नरेंद्र दत्त था और लोग इन्हें प्यार से नरेन कहते थे।    

     नरेंद्र का बचपन पिता के सानिंध्य एवं माता के आध्यात्मिक विचारों  से पोषित होता रहा था।  नरेंद्र बचपन से ही अत्यंत प्रखर बुद्धिशाली, नटखट और फुर्तीला था। वह अध्ययन के साथ-साथ खेलकूद एवं व्यायाम में भी अत्यन्त निपुण था। एक अद्भुत ग्राहय क्षमता एवं विलक्षण स्मरण शक्ति नरेंद्र के अंदर थी, जो उसे सामान्य बालकों से अलग बनाता था। युवक नरेंद्र अत्यंत विचारशील थे ।  प्रमाण के बगैर केवल विश्वास के बल पर वह किसी बात को स्वीकार नहीं करते थे । ईश्वर विषयक इसी जिज्ञासा को शांत करने के लिए वह जगह - जगह भटकते रहे, परन्तु कही भी समाधान नहीं मिल पाया। अंततः  वह निराश हो गए और उन्हें ऐसे प्रतीत होने लगा कि ईश्वर केवल एक कोरी कल्पना है। जैसा की विदित है की जहाँ निराशा सभी रास्ते बंद कर देती है तो कहीं न कहीं आशा की एक किरण उस अँधेरे में प्रकाश को फैला देती है ।  ठीक इसी प्रकार जब नरेंद्र ईश्वर विषयक जिज्ञासाओं  का समाधान न पाकर ईश्वर को एक कोरी  कल्पना मात्र मान बैठे ही थे , ठीक उसी समय नियति ने उनकी मुलाकात रामकृष्ण परमहंस से करा दी। रामकृष्ण परमहंस का सानिंध्य उन्हें उसी प्रकार से तृप्त कर दिया जिस प्रकार बंजर भूमि पर स्वाति की बूँद । नरेंद्र नाथ ने स्वामी परमहंस ने सीधे पूछा कि " क्या आपने ईश्वर को देखा है।  इस पर रामकृष्ण ने उन्हें हँसकर कहा कि हाँ मैंने ईश्वर को देखा है ? और तुम्हे भी ईश्वर का दर्शन करा सकता हूँ। रामकृष्ण के इस वक्तव्य से नरेंद्र इतने प्रभावित हुए कि उन्हें अपना गुरु मान बैठे और लगभग ५ वर्षो तक उनके सानिंध्य में रहे। तीव्र साधना के बल पर नरेंद्र ने श्री रामकृष्ण से दिव्य ज्ञान प्राप्त कर लिया। 
     इसी बीच, जब नरेंद्र लगभग २३ वर्ष के थे उसी समय श्री रामकृष्ण दिव्य समाधि में लीन हो गये। यह पल नरेन्द्रनाथ के लिए एक अत्यंत ही व्यथित करने वाला पल था। परन्तु उन्होंने  अपने आप को संभाला और रामकृष्ण परमहंस द्वारा सौपे गये कार्य को आगे बढ़ाने की जिम्मेवारी का निर्वहन करने लगे।  नरेंद्र पहले ही गृह त्याग कर चुके थे।  अब वे स्वामी विवेकानंद बन चुके थे और  सम्पूर्ण देश में परिव्राजक बन भ्रमण करने निकले।  उत्तर में हिमालय से दक्षिण में कन्याकुमारी तक उन्होंने पैदल यात्रा की और देश की ज्वलंत समस्याओं  का अनुभव किया। 

     सितम्बर 1893 में स्वामीजी सर्वधर्म सम्मेलन में भाग लेने अमेरिका के शिकागो शहर पहुँचे।  वहाँ उन्होंने अपनी बात जिस तरह रखी वह पश्चिम के लोगों के लिए एक नई अनुभूति थी।  स्वामीजी का अमेरिकी लोगों को 'भाइयों और बहनों' शब्द का सम्बोधन ने सभी श्रोताओं का दिल जीत लिया। स्वामीजी का यह संदेश नवजीवन और नवप्रेरणा का संदेश था।  इसके बाद स्वामीजी ने तर्क सहित भारतीय धर्म एवं दर्शनशास्त्र के विषय में बतलाया।  अमेरिका से स्वामीजी इंग्लैंड और अन्य यूरोपीय देश गये और इस तरह उन्होंने प्राच्य एवं पाश्चात्य सभ्यताओं एवं संस्कृति को जोड़ने का भगीरथ प्रयास किया। 

     1897 में स्वामीजी भारत लौटे। तब तक भारतीय समाचार पत्रों में स्वामीजी के नाम का डंका बजने लगा था। उनके स्वागत के लिए जनता उमड़ पड़ी थी। लोगों को लगा कि शंकराचार्य का नया अवतार स्वामीजी है। बाद में स्वामीजी ने देशवासियों को उस त्याग के महान आदर्श का स्मरण कराया जो हमारा राष्ट्रीय ध्येय रहा है। उन्होंने यह स्पष्ट समझा दिया कि अपनी विशाल और महान आध्यात्मिक संस्कृति के कारण भारत का अस्तित्व अमर रहेगा। स्वामीजी के इस संजीवन संदेश से भारत "प्रबुद्ध भारत " बन गया। 

     स्वामीजी यही नहीं रुके बल्कि अपने इष्ट स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी  के संदेश को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने बेलूर (कोलकाता के निकट ) में रामकृष्ण मठ एवं रामकृष्ण मिशन की स्थापना की जिसका उद्देश्य था - "आत्मनो मोक्षार्थ जगद्धिताय च" अर्थात "अपनी मुक्ति और संसार का कल्याण "। 

चालीस वर्ष की अल्पायु में विवेकानंद महासमाधि में लीं हो गए । परन्तु उन्होंने इतनी अल्पायु में जो रास्ता मानव कल्याण हेतु  दिखा दिए वे अमूल्य है।  प्रत्येक जीव में एक अव्यक्त ब्रह्म को देखने वाले विवेकानंद ने राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय दोनों ही पहलू पर कार्य किए।  स्वामीजी के अमूल्य विचार मानव जीवन को हमेशा से प्रकाशित करते रहेंगे। 

स्वामी विवेकानंद के कुछ अमूल्य विचार निम्न है : -

1) उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक तुम्हें लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाये। 
2) नीति परायण बनो, साहसी बनो, धुन के पक्के बनो - तुम्हारे नैतिक चरित्र में कहीं भी एक धब्बा तक न हो। मृत्यु से भी मुठभेड़ लेने की हिम्मत रखों। 
3)  अपने सामने हमेशा एक आदर्श रख कर आगे बढ़ो। यदि आदर्श रखने वाला व्यक्ति हजार गलतियाँ करता है तो मैं दृढ़तापूर्वक कहता हूँ कि बिना आदर्श का मनुष्य 50 हजार गलतियाँ करेगा। चरित्र हमेशा फलदायक होता है। 
4)  विपरीत परिस्थितियों को दबा देने के लिए जो वीरतापूर्वक प्रयत्न है, वहीं एक मात्र ऐसा है, जो हमारी आत्मा को ऊपर उठाता जाता है। 
5) प्राचीन धर्मों में कहा गया है कि "वह नास्तिक है, जो ईश्वर में विश्वास नहीं करता। नया धर्म कहता है, “नास्तिक वह है जो स्वयं में विश्वास नहीं करता
6) सारे पापों और बुराइयों की जड़ है - दुर्बलता। समस्त असत कार्यों के पीछे वह दुर्बलता ही एकमात्र प्रेरकशक्ति है और यहीं दुर्बलता स्वार्थपरता की जड़ है। 
7) संसार कायरों के लिए नही है। भागने का प्रयास मत करों। सफलता या असफलता की परवाह मत करो।
8) पैसे के व्यवहार में बिल्कुल निष्कलंक रहो। जब तक तुममे विश्वास, सच्चाई और निष्ठा है, तब प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति होती रहेगी। यदि तुम अपने हृदय का खून बहाते हुए एवं दिन - रात कार्य करते रहो तो जीवन में ऐसा कुछ भी नहीं रह जायेगा जो तुम न कर सको। 
9) प्रत्येक कर्म पवित्र है और भगवत पूजा का सर्वोकृष्ट रुप है। 




व्यथा  -लेखनी की

अजीत कुमार झा 
पुस्तकालयाध्यक्ष 

मैंने शिष्ट बनाया सबको
मैंने ज्ञान सिखाया ।
पर आज नहीं मेरी  कीमत
तरस खुद पर मुझे आया ।।

मेरी बदौलत बने अस्त्र-शस्त्र
मेरी बदौलत बने हथियार ।
ये तो मेरी  चाह नहीं थी
ऐसे तो न थे मेरे जज्बात ।।

जो मेरा था  सबसे प्रिय
उसकी नहीं समाज को परवाह ।
जिस गुरु ने सबको बनाया
आज पहचान नहीं उसके पास ।।

आधुनिकता की इस अंधी दौड़ में
आधारहीन बन कर रह गए हम ।
माया मोह  और पैसों की चाह में ,
मानव - मूल्यों से कट कर रह गए हम ।। 

गुरु को देवतुल्य मान "अजीत "
आत्मा को तृप्त करो। 
अभिशाप नहीं मुझे वरदान समझ  
मानव जीवन का आधार बनाओं  ।। 

मंगलवार, 11 फ़रवरी 2014

सभी कार्य फायदे के लिए ही नहीं किये जाते, नुकसान न हो इसलिए भी कुछ कार्य किये जाते है। 

अजीत कुमार झा 
माफ़ी एक  ऐसी औषधि है, जो गहराई तक जा कर भावनात्मक घावों का इलाज करती है। 

अजीत कुमार झा 
वर्त्तमान चाहे कितना भी अंधकारमय क्यों न हो, उसमें कुछ न कुछ शानदार अवश्य ही छिपा रहता है

अजीत कुमार झा 
हमारी हिंदी 
अजीत कुमार झा 

अलंकारों छंदों  से शोभित हिंदी राजकुमारी 
लिखे अगर हिंदी में पाती वाह वाह करती दुनिया सारी । 

निज भाषा के माधुर्य पर न्योछावर भारतवासी 
अंग्रेजी के अमर बेल में कहाँ ये सुविधा सारी । 

भाव विचारों के अभिव्यक्ति में हिंदी है सिरमौर 
अंग्रेजी इक बैशाखी है, जिसका नहीं कोई ऒर छोर । 

आ गया अब वह समय जब हिंदी को बचाना होगा 
ममी को माँ और डेड को पिताजी बनाना होगा । 

सर के मोह जाल से मुक्त हो गुरूजी को अपनाना होगा 
सिस्टर की शिष्टता से निकल  बहन को पास बिठाना  होगा ।

मालवीय भारतेन्दु  के हिंदी की लाज बचानी होगी 
समय आज आ गया है 'अजीत' हिंदी को भारत की बिंदी बनानी होगी ।

अजीत कुमार झा 
पुस्तकालयाध्यक्ष 

शुक्रवार, 2 अगस्त 2013

राम और राम नाम में तुलना 

१. राम का नाम ले कर हनुमानजी सागर लाँघ लंका पहुँच गए परंतु रामजी को लंका जाने के लिए समुद्र पर पुल बनाना पड़ा  

 २. राम नाम लिखा पत्थर पानी में तैरता है परन्तु जिस पत्थर को स्वयं रामजी ने पानी में डाला वह डूब गया। 

चिंता मिटाने की अचूक औषधि 
    चिंतन करे 

गुरुवार, 16 मई 2013

नदियाँ चिर काल से सतत गति से बहती हुए सागर से केवल इस आस में मिलती है कि  एक न एक दिन मैं सागर के खारे जल को मीठा बना दूँगी । 

तात्पर्य यह है कि नदी अपने मृदुल और मिठास युक्त स्वभाव को असंभव परिस्थिति में भी नहीं छोड़ती है । 

अजीत झा 

मंगलवार, 20 नवंबर 2012

सुविचार 

जो भारी कोलाहल में भी संगीत को सुन सकता है, वह महान उपलब्धि को प्राप्त करता है।
- डॉ. विक्रम साराभाई

मुस्कान पाने वाला मालामाल हो जाता है पर देने वाला दरिद्र नहीं होता।

- अज्ञात


जीवन की जड़ संयम की भूमि में जितनी गहरी जमती है और सदाचार का जितना जल दिया जाता है उतना ही जीवन हरा भरा होता है और उसमें ज्ञान का मधुर फल लगता है।

- दीनानाथ दिनेश


किताबें ऐसी शिक्षक हैं जो बिना कष्ट दिए, बिना आलोचना किए और बिना परीक्षा लिए हमें शिक्षा देती हैं।

- अज्ञात


अनुभव-प्राप्ति के लिए काफ़ी मूल्य चुकाना पड़ सकता है पर उससे जो शिक्षा मिलती है वह और कहीं नहीं मिलती।

- अज्ञात



प्रयास 

लोग असफल नहीं होते। बस वे कोशिश करना छोड़ देते है।  प्रयास छोड़  देने के बाद का प्रभाव ही असफलता है। 


अजीत झा 

शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2012

सुविचार

रंगों की उमंग खुशी तभी देती है जब उसमें उज्जवल विचारों की अबरक़ चमचमा रही हो। 

चंद्रमा, हिमालय पर्वत, केले के वृक्ष और चंदन शीतल माने गए हैं, पर इनमें से कुछ भी इतना शीतल नहीं जितना मनुष्य का तृष्णा रहित चित्त। 



किताबें समय के महासागर में जलदीप की तरह रास्ता दिखाती हैं। 


बेहतर ज़िंदगी का रास्ता बेहतर किताबों से होकर जाता है। 



बिखरना विनाश का पथ है तो सिमटना निर्माण का।


समझौता एक अच्छा छाता भले बन सकता है, लेकिन अच्छी छत नहीं।



फल के आने से वृक्ष झुक जाते हैं, वर्षा के समय बादल झुक जाते हैं, संपत्ति के समय सज्जन भी नम्र होते हैं। परोपकारियों का स्वभाव ही ऐसा है। 



प्रकृति, समय और धैर्य ये तीन हर दर्द की दवा हैं।



रंग में वह जादू है जो रंगने वाले, भीगने वाले और देखने वाले तीनों के मन को विभोर कर देता है।




बुधवार, 10 अक्तूबर 2012

आह्वान


आइए अपनी भाषा और देवभाषा का सम्मान करे । संकल्प ले कि  हिंदी को सरताज बनायेंगे । 
यो ध्रुवाणि परित्यज्य अध्रुवाणि निषेवते।
ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति अध्रुवं नष्टमेव च ॥



पॄथ्वीव्यां त्रीणि रत्नानि जलम् अन्नम् सुभाषितम्

मूढै: पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा प्रदीयते 




विद्या विवादाय धनं मदाय शक्ति: परेषां परिपीडनाय

खलस्य: साधो: विपरीतम् एतद ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय 
लालयेत् पञ्च वर्षाणि दश वर्षाणि ताडयेत् ।
प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रे मित्रवदाचरेत् ॥



अहन्यहनि भूतानि गच्छन्ति यमालयम् ।
शेषाः स्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम् ॥



प्रदोषे दीपकश्चंद्रः प्रभाते दीपको रविः ।
त्रैलोक्ये दीपको धर्मः सुपुत्रः कुलदीपकः ॥



विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन ।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ॥



उदये सविता रक्तो रक्तश्चास्तमये तथा ।
सम्पत्तो च विपत्तो च महतामेकरूपता ॥




अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् ।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम् ॥


अष्टादशपुराणां सारं व्यासेन कीर्तितम् ।
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ॥



नास्ति विद्या समं चक्षु नास्ति सत्य समं तपः ।
नास्ति राग समं दुःखम् नास्ति त्याग समं सुखम् ॥


नरस्य आभरणं रूपं रूपस्य आभरणं गुणः ।
गुणस्य आभरणं ज्ञानं ज्ञानस्य आभरणं क्षमा ॥


पुस्तकस्था तु या विद्या परहस्तगतं धनम् ।
कार्यकाले समुत्पन्ने न सा विद्या न तद् धनम् ॥


अधमाः धनमिच्छन्ति धनं मानं च मध्यमाः ।
उत्तमाः मानमिच्छन्ति मानो हि महताम् धनम् ॥


वृथा वृष्टिः समुद्रेषु वृथा तृप्तेषु भोजनम्।
वृथा दानं धनाद्येषु वृथा दीपो दिवापि च ॥


पिबन्ति नद्यः स्वयम् एव न अम्भः
    स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षाः ।
न अदन्ति स्वयम् खलु वारिवाहा
    परोपकाराय सतां विभूतयः ॥



विदेशेषु धनं विद्या व्यसनेषु धनं मतिः ।
परलोके धनं धर्मः शीलं सर्वत्र वै धनं ॥
षड् दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता ।
निद्रा तद्रा भयं क्रोधः आलस्यं दीर्घसूत्रता ॥



येषां न विद्या न तपो न दानं
    न  ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः ।
ते मर्त्यलोके भुविभारभूता
    मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ॥



वज्रादपि कठोरापि मृदूनि कुसुमादपि ।
लोकोत्तराणां चेतांसि को हि विज्ञातुमर्हति ॥



अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः ।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम् ॥

सोमवार, 8 अक्तूबर 2012