व्यथा -लेखनी की
अजीत कुमार झा
पुस्तकालयाध्यक्ष
मैंने शिष्ट बनाया सबको
मैंने ज्ञान सिखाया ।
पर आज नहीं मेरी कीमत
तरस खुद पर मुझे आया ।।
मेरी बदौलत बने अस्त्र-शस्त्र
मेरी बदौलत बने हथियार ।
ये तो मेरी चाह नहीं थी
ऐसे तो न थे मेरे जज्बात ।।
जो मेरा था सबसे प्रिय
उसकी नहीं समाज को परवाह ।
जिस गुरु ने सबको बनाया
आज पहचान नहीं उसके पास ।।
आधुनिकता की इस अंधी दौड़ में
आधारहीन बन कर रह गए हम ।
माया मोह और पैसों की चाह में ,
मानव - मूल्यों से कट कर रह गए हम ।।
गुरु को देवतुल्य मान "अजीत "
आत्मा को तृप्त करो।
अभिशाप नहीं मुझे वरदान समझ
मानव जीवन का आधार बनाओं ।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें