आज का विचार

जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमे रसधार नहीं वो ह्रदय नहीं वह पत्थर है, जिसमे स्वदेश का प्यार नहीं

गुरुवार, 28 अगस्त 2014

व्यथा  -लेखनी की

अजीत कुमार झा 
पुस्तकालयाध्यक्ष 

मैंने शिष्ट बनाया सबको
मैंने ज्ञान सिखाया ।
पर आज नहीं मेरी  कीमत
तरस खुद पर मुझे आया ।।

मेरी बदौलत बने अस्त्र-शस्त्र
मेरी बदौलत बने हथियार ।
ये तो मेरी  चाह नहीं थी
ऐसे तो न थे मेरे जज्बात ।।

जो मेरा था  सबसे प्रिय
उसकी नहीं समाज को परवाह ।
जिस गुरु ने सबको बनाया
आज पहचान नहीं उसके पास ।।

आधुनिकता की इस अंधी दौड़ में
आधारहीन बन कर रह गए हम ।
माया मोह  और पैसों की चाह में ,
मानव - मूल्यों से कट कर रह गए हम ।। 

गुरु को देवतुल्य मान "अजीत "
आत्मा को तृप्त करो। 
अभिशाप नहीं मुझे वरदान समझ  
मानव जीवन का आधार बनाओं  ।। 

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