आज का विचार

जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमे रसधार नहीं वो ह्रदय नहीं वह पत्थर है, जिसमे स्वदेश का प्यार नहीं

बुधवार, 25 अप्रैल 2012


दोहे 
गोपाल दास नीरज


वाणी के सौन्दर्य का शब्दरूप है काव्य
किसी व्यक्ति के लिए है कवि होना सौभाग्य।



जिसने सारस की तरह नभ में भरी उड़ान
उसको ही बस हो सका सही दिशा का ज्ञान।



जब तक पर्दा खुदी का कैसे हो दीदार
पहले खुद को मार फिर हो उसका दीदार।



जिसमें खुद भगवान ने खेले खेल विचित्र
माँ की गोदी से अधिक तीरथ कौन पवित्र।



कैंची लेकर हाथ में वाणी में विष घोल
पूछ रहे हैं फूल से वो सुगंध का मोल।



दिखे नहीं फिर भी रहे खुशबू जैसे साथ
उसी तरह परमात्मा संग रहे दिन रात।



मिटे राष्ट्र कोई नहीं हो कर के धनहीन
मिटता जिसका विश्व में गौरव होता क्षीण।



इंद्रधनुष के रंग-सा जग का रंग अनूप
बाहर से दीखे अलग भीतर एक स्वरूप।
धरा को उठाओ
गोपाल दास नीरज


दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ।

बहुत बार आई गई यह दीवाली
मगर तम जहाँ था वहीं पर खड़ा है,
बहुत बार लौ जल बुझी पर अभी तक
कफ़न रात का हर चमन पर पड़ा है,
न फिर सूर्य रूठे, न फिर स्वप्न टूटे,
उषा को जगाओ, निशा को सुलाओ।
दिये से मिटेगा न मन का अँधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ।

सृजन शांति के वास्ते है ज़रूरी
कि हर द्वार पर रोशनी गीत गाए,
तभी मुक्ति का यज्ञ यह पूर्ण होगा
कि जब प्यार तलवार से जीत जाए,
घृणा बढ़ रही है, अमा चढ़ रही है,
मनुज को जिलाओ, दनुज को मिटाओ।
दिये से मिटेगा न मन का अँधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ।

बड़े वेगमय पंख हैं रोशनी के
न वह बंद रहती किसी के भवन में,
किया कैद जिसने उसे शक्ति बल से
स्वयं उड़ गया वह धुँआ बन पवन में,
न मेरा-तुम्हारा, सभी का प्रहर यह
इसे भी बुलाओ, उसे भी बुलाओ।
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ।

अगर चाहते तुम कि सारा उजाला
रहे दास बनकर सदा को तुम्हारा,
नहीं जानते कि फूस के गेह में पर
बुलाता सुबह किस तरह से अंगारा,
न फिर कोई अग्नि रचे रास इससे,
सभी रो रहे आँसुओं को हँसाओ।
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ।


खग उड़ते रहना जीवन भर
गोपाल दास नीरज 



खग! उड़ते रहना जीवन भर!
भूल गया है तू अपना पथ,
और नहीं पंखों में भी गति,
किंतु लौटना पीछे पथ पर अरे, मौत से भी है बदतर।
खग! उड़ते रहना जीवन भर!

मत डर प्रलय-झकोरों से तू,
बढ़ आशा-हलकोरों से तू,
क्षण में यह अरि-दल मिट जाएगा तेरे पंखों से पिसकर।
खग! उड़ते रहना जीवन भर!

यदि तू लौट पड़ेगा थक कर,
अंधड़ काल-बवंडर से डर,
प्यार तुझे करने वाले ही देखेंगे तुझको हँस-हँसकर।
खग! उड़ते रहना जीवन भर!

और मिट गया चलते-चलते,
मंज़िल पथ तय करते-करते,
तेरी खाक चढ़ाएगा जग उन्नत भाल और आँखों पर।
खग! उड़ते रहना जीवन भर! 

छिप छिप अश्रु बहाने वालों 



गोपाल दास नीरज

छिप-छिप अश्रु बहाने वालों!
मोती व्यर्थ लुटाने वालों!
कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है।

सपना क्या है? नयन सेज पर,
सोया हुआ आँख का पानी,
और टूटना है उसका ज्यों,
जागे कच्ची नींद जवानी,
गीली उमर बनाने वालों! डूबे बिना नहाने वालों!
कुछ पानी के बह जाने से सावन नहीं मरा करता है।

माला बिखर गई तो क्या है,
खुद ही हल हो गई समस्या,
आँसू गर नीलाम हुए तो,
समझो पूरी हुई तपस्या,
रूठे दिवस मनाने वालों! फटी क़मीज़ सिलाने वालों!
कुछ दीपों के बुझ जाने से आँगन नहीं मरा करता है।

खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर,
केवल जिल्द बदलती पोथी।
जैसे रात उतार चाँदनी,
पहने सुबह धूप की धोती,
वस्त्र बदलकर आने वालों! चाल बदलकर जाने वालों!
चंद खिलौनों के खोने से बचपन नहीं मरा करता है।

लाखों बार गगरियाँ फूटीं,
शिकन न आई पनघट पर,
लाखों बार कश्तियाँ डूबीं,
चहल-पहल वो ही है तट पर,
तम की उमर बढ़ाने वालों! लौ की आयु घटाने वालों!
लाख करे पतझर कोशिश पर उपवन नहीं मरा करता है।

लूट लिया माली ने उपवन,
लुटी न लेकिन गंध फूल की,
तूफ़ानों तक ने छेड़ा पर,
खिड़की बन्द न हुई धूल की,
नफ़रत गले लगाने वालों! सब पर धूल उड़ाने वालों!
कुछ मुखड़ों की नाराज़ी से दर्पन नहीं मरा करता है!

बादल

अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' 
सखी,
बादल थे नभ में छाये
बदला था रंग समय का
थी प्रकृति भरी करुणा में
कर उपचय मेघ निश्चय का।।

वे विविध रूप धारण कर
नभ तल में घूम रहे थे
गिरि के ऊँचे शिखरों को
गौरव से चूम रहे थे।।

वे कभी स्वयं नग सम बन
थे अद्भुत दृश्य दिखाते
कर कभी दुंदुभी वादन
चपला को रहे नचाते।।

वे पहन कभी नीलांबर
थे बड़े मुग्ध कर बनते
मुक्तावलि बलित अघट में
अनुपम वितान थे तनते।।

बहुश: खंडों में बँटकर
चलते फिरते दिखलाते
वे कभी नभ पयोनिधि के
थे विपुल पोत बन पाते।।

वे रंग बिरंगे रवि की
किरणों से थे बन जाते
वे कभी प्रकृति को विलसित
नीली साड़ियाँ पिन्हाते।।

वे पवन तुरंगम पर चढ़
थे दूनी दौड़ लगाते
वे कभी धूप छाया के
थे छविमय दृश्य दिखाते।।

घन कभी घेर दिन मणि को
थे इतनी घनता पाते
जो द्युति विहीन कर, दिन को
थे अमा समान बनाते।।

आँख का आँसू
अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
आँख का आँसू ढ़लकता देखकर
जी तड़प कर के हमारा रह गया
क्या गया मोती किसी का है बिखर
या हुआ पैदा रतन कोई नया

ओस की बूँदें कमल से है कहीं
या उगलती बूँद है दो मछलियाँ
या अनूठी गोलियाँ चांदी मढ़ी
खेलती है खंजनों की लड़कियाँ

या` जिगर पर जो फफोला था पड़ा
फूट कर के वह अचानक बह गया
हाय` था अरमान, जो इतना बड़ा
आज वह कुछ बूँद बन कर रह गया।।

पूछते हो तो कहो मैं क्या कहूँ
यों किसी का है निराला पन भया
दर्द से मेरे कलेजे का लहू
देखता हूँ आज पानी बन गया

प्यास थी इस आँख को जिसकी बनी
वह नहीं इस को सका कोई पिला
प्यास जिससे हो गयी है सौगुनी
वाह क्या अच्छा इसे पानी मिला

ठीक कर लो जाँच लो धोखा न हो
वह समझते हैं सफर करना इसे
आँख के आँसू निकल करके कहो
चाहते हो प्यार जतलाना किसे

आँख के आँसू समझ लो बात यह
आन पर अपनी रहो तुम मत अड़े
क्यों कोई देगा तुम्हें दिल में जगह
जब कि दिल में से निकल तुम यों पड़े

हो गया कैसा निराला यह सितम
भेद सारा खोल क्यों तुमने दिया।
यों किसी का है नही खोते भरम
आँसुओं तुमने कहो यह क्या किया
 


मातृभाषा के प्रति
-भारतेंदु हरिश्चंद
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।

अंग्रेज़ी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन।
पै निज भाषाज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।।

उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय।
निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय।।

निज भाषा उन्नति बिना, कबहुँ न ह्यैहैं सोय।
लाख उपाय अनेक यों भले करो किन कोय।।

इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग।
तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग।।

और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात।
निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात।।

तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय।
यह गुन भाषा और महं, कबहूँ नाहीं होय।।

विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।।

भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात।
विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात।।

सब मिल तासों छांड़ि कै, दूजे और उपाय।
उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय।।

-भारतेंदु हरिश्चंद्र