आज का विचार

जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमे रसधार नहीं वो ह्रदय नहीं वह पत्थर है, जिसमे स्वदेश का प्यार नहीं

शनिवार, 28 मई 2011


आस का मंदिर



प्रथम प्रस्फुटित नव किरण की आस में
बिखरी चांदनी के सहवास मे
धैर्य व विश्वास के साथ मे
एक नया कदम मंजिल की ओर बढायें
स्नेहीजनों का हाथ लेकर हाथ में


जैसे संवर जाती है तक़दीर शिल्पकार के हाथ से
बंधकर अटककर टूटकर उड़ती है पतंग निश्चल भाव से
रात जाती है इक नव प्रभात की आस में
जिन्दगी के अर्श पर मजबूरियों के फर्श पर
धैर्य कभी कम न हो मुश्किलों को देख कर
इक नया कदम बढ़ाएं अंधियारों को चीरकर


अगर चाहते हो जीवन में सही दिशा का ज्ञान
बन कर सारस नभ मे भरो उड़ान
याद हमेशा रखना 'अजीत' कि यह वाणी
कुछ तारो के टूटने से आसमान होता नहीं खाली

भूत को बिसार के भविष्य को संवारें हम
वर्तमान का कर उपयोग जीवन को बनाये हम
काँटों की सेज से पुष्प को चुन चले
एक स्वाति कि बूंद से मन को तृप्त करे
याद रखे हमेशा यह, आनंद यात्रा में है
गंतव्य पहुचने में नहीं,
हमारा कर्तव्य कर्म करने में है फल की चाह मे नहीं

मन मे उजियारा भर, आस का मंदिर बनायें
सहज सरल इस जीवन में उच्च विचार फैलाए
मनुज मनुज में हो प्यार फैले सुगंध संसार
आओ मिल जुल कर इस जहाँ को स्वर्ग बनायें

अजीत कुमार झा

शुक्रवार, 27 मई 2011

कोशिश करने वालों की - हरिवंशराय बच्चन

कोशिश करने वालों की






कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,


नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,


चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।


मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,


चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।


आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,


कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।


डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,


जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।


मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,


बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।


मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,


कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।


असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,


क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।


जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,


संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।


कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,


कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती


- हरिवंशराय बच्चन


क्षमा- अज्ञात

क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल


सबका लिया सहारा

पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे

कहो, कहाँ कब हारा ?



क्षमाशील हो रिपु-समक्ष

तुम हुये विनीत जितना ही

दुष्ट कौरवों ने तुमको

कायर समझा उतना ही।



अत्याचार सहन करने का

कुफल यही होता है

पौरुष का आतंक मनुज

कोमल होकर खोता है।



क्षमा शोभती उस भुजंग को

जिसके पास गरल हो

उसको क्या जो दंतहीन

विषरहित, विनीत, सरल हो ।



तीन दिवस तक पंथ मांगते

रघुपति सिन्धु किनारे,

बैठे पढ़ते रहे छन्द

अनुनय के प्यारे-प्यारे ।



उत्तर में जब एक नाद भी

उठा नहीं सागर से

उठी अधीर धधक पौरुष की

आग राम के शर से ।



सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि

करता आ गिरा शरण में

चरण पूज दासता ग्रहण की

बँधा मूढ़ बन्धन में।



सच पूछो , तो शर में ही

बसती है दीप्ति विनय की

सन्धि-वचन संपूज्य उसी का

जिसमें शक्ति विजय की ।



सहनशीलता, क्षमा, दया को

तभी पूजता जग है

बल का दर्प चमकता उसके

पीछे जब जगमग है।


अज्ञात

चारु चंद्र की चंचल किरणें- अज्ञात

चारु चंद्र की चंचल किरणें,


खेल रहीं थीं जल थल में।

स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई थी,

अवनि और अम्बर तल में।

पुलक प्रकट करती थी धरती,

हरित तृणों की नोकों से।

मानो झूम रहे हों तरु भी,

मन्द पवन के झोंकों से।



पंचवटी की छाया में है,

सुन्दर पर्ण कुटीर बना।

जिसके बाहर स्वच्छ शिला पर,

धीर वीर निर्भीक मना।

जाग रहा है कौन धनुर्धर,

जब कि भुवन भर सोता है।

भोगी अनुगामी योगी सा,

बना दृष्टिगत होता है।



बना हुआ है प्रहरी जिसका,

उस कुटिया में क्या धन है।

जिसकी सेवा में रत इसका,

तन है, मन है, जीवन है।



अज्ञात

कारवाँ गुज़र गया गोपालदास नीरज

कारवाँ गुज़र गया







स्वप्न झरे फूल से,


मीत चुभे शूल से,


लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,


और हम खड़ेखड़े बहार देखते रहे।


कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!






नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,


पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई,


पातपात झर गये कि शाख़शाख़ जल गई,


चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,


गीत अश्क बन गए,


छंद हो दफन गए,


साथ के सभी दिऐ धुआँधुआँ पहन गये,


और हम झुकेझुके,


मोड़ पर रुकेरुके


उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे।


कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।






क्या शबाब था कि फूलफूल प्यार कर उठा,


क्या सुरूप था कि देख आइना सिहर उठा,


इस तरफ ज़मीन उठी तो आसमान उधर उठा,


थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,


एक दिन मगर यहाँ,


ऐसी कुछ हवा चली,


लुट गयी कलीकली कि घुट गयी गलीगली,


और हम लुटेलुटे,


वक्त से पिटेपिटे,


साँस की शराब का खुमार देखते रहे।


कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।






हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ,


होठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ,


दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ,


और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ,


हो सका न कुछ मगर,


शाम बन गई सहर,


वह उठी लहर कि दह गये किले बिखरबिखर,


और हम डरेडरे,


नीर नयन में भरे,


ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे।


कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!






माँग भर चली कि एक, जब नई नई किरन,


ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमक उठे चरनचरन,


शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,


गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयननयन,


पर तभी ज़हर भरी,


गाज एक वह गिरी,


पुँछ गया सिंदूर तारतार हुई चूनरी,


और हम अजानसे,


दूर के मकान से,


पालकी लिये हुए कहार देखते रहे।


कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।






- गोपालदास नीरज






यह कदम्ब का पेड़ ! -सुभद्रा कुमारी चौहान

यह कदम्ब का पेड़ !







यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।


मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे।।


ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली।


किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली।।


तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता।


उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता।।


वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता।


अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता।।


बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता।


माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता।।


तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे।


ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे।।


तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता।


और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता।।


तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती।


जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं।।


इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे।


यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।।






-सुभद्रा कुमारी चौहान






ठुकरा दो या प्यार करो - सुभद्रा कुमारी चौहान

ठुकरा दो या प्यार करो







देव! तुम्हारे कई उपासक कई ढंग से आते हैं।


सेवा में बहुमुल्य भेंट वे कई रंग की लाते हैं॥






धूमधाम से साजबाज से वे मंदिर में आते हैं।


मुक्तामणि बहुमुल्य वस्तुऐं लाकर तुम्हें चढ़ाते हैं॥






मैं ही हूँ गरीबिनी ऐसी जो कुछ साथ नहीं लायी।


फिर भी साहस कर मंदिर में पूजा करने चली आयी॥






धूप-दीप-नैवेद्य नहीं है झांकी का श्रृंगार नहीं।


हाय! गले में पहनाने को फूलों का भी हार नहीं॥






कैसे करूँ कीर्तन, मेरे स्वर में है माधुर्य नहीं।


मन का भाव प्रकट करने को वाणी में चातुर्य नहीं॥






नहीं दान है, नहीं दक्षिणा खाली हाथ चली आयी।


पूजा की विधि नहीं जानती, फिर भी नाथ! चली आयी॥






पूजा और पुजापा प्रभुवर! इसी पुजारिन को समझो।


दान-दक्षिणा और निछावर इसी भिखारिन को समझो॥






मैं उनमत्त प्रेम की प्यासी हृदय दिखाने आयी हूँ।


जो कुछ है, वह यही पास है, इसे चढ़ाने आयी हूँ॥






चरणों पर अर्पित है, इसको चाहो तो स्वीकार करो।


यह तो वस्तु तुम्हारी ही है ठुकरा दो या प्यार करो॥






- सुभद्रा कुमारी चौहान






आशा का दीपक -दिनकर

आशा का दीपक



वह प्रदीप जो दीख रहा हइ झिलमिल, दूर नहीं है;


थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।






चिनगारी बन गयी लहू की बूँद जो पग से;


चमक रहे, पीछे मुड़ देखो, चरण-चिन्ह जगमग से।


शुरू हुई आराध्य-भुमि यह, क्लान्ति नहीं रे राही;


और नहीं तो पाँव लगे हैं क्यों पड़ने दगमग से?


बाकी होश तभी तक जब तक जलता तूर नहीं है;


थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।






अपनी हड्डी की मशाल से हृदय चीरते तम का,


सारी रात चले तुम दुख झेलते कुलिश का।


एक खेय है शेष, किसी विध पार उसे कर जाओ;


वह देखो, उस पार चमकता है मन्दिर प्रियतम का।


आकर इतना पास फिरे, वह सच्चा शूर नहीं है;


थककर बाइठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।






दिशा दीप्त हो उठी प्राप्त कर पुण्य-प्रकाश तुम्हारा,


लिखा जा चुका अनल-अक्षरों में इतिहास तुम्हारा।


जिस मिट्टी ने लहू पिया, वह फूल खिलाएगी ही,


अम्बर पर घन बन छाएगा ही उच्छ्वास तुम्हारा।


और अधिक ले जाँच, देवता इतन क्रूर नहीं है।


थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।






-दिनकर






जो भरा नहीं है भावों से,  बहती जिसमे रसधार नहीं | वो ह्रदय नहीं वह पत्थर है, जिसमे स्वदेश का प्यार नहीं |