आज का विचार

जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमे रसधार नहीं वो ह्रदय नहीं वह पत्थर है, जिसमे स्वदेश का प्यार नहीं

गुरुवार, 2 जून 2011

आखिर कहाँ जा रहे है हम

आखिर कहाँ जा रहे है हम
अजीत कुमार झा

तकनीकों के प्रयोग से जीवन बना सरल
पर संबंधों  के निर्वहन में मानव हुआ विफल | 
हँसने के लिए चाहिए अब टीवी का सहारा
शो ख़त्म हुआ और गायब हंसी हमारा |
ऑरकुट फेसबुक में दुनिया गयी सिमट
रिश्ते नाते आस पड़ोस के हो गए अब विकट |
इन्टरनेट ने ग्लोबल विलेज की कल्पना को किया साकार
अपना गाँव और शहर जाना अब हुआ दुश्वार |
तकनीकों के अंध प्रयोग से मशीनी मानव बन गए हम
आगे बढ़ने की होड़ में सबसे कट कर रह गए हम |
ऑफिस से घर पहुँचते स्वयं हाथ टी वी पर चला जाता है
अपनों से दो बातें करने का समय भी नहीं मिल पाता है |
शुभकामनायें भेजने का नया तरीका हुआ ईजाद
बस मैसेज फॉरवर्ड करो लिखने की नहीं है बात |
दूरदर्शन और मोबाइल से बढ गयी नजदीकियां 
रिश्ते नाते और चिट्ठियों से बढ गयी है दूरियां  |
वक्त है अभी भी 'अजीत' संभला जाय
बाद में पछताना पड़े ऐसी नौबत न आने पाए |

अजीत कुमार झा
पुस्तकालयाध्यक्ष





शनिवार, 28 मई 2011


आस का मंदिर



प्रथम प्रस्फुटित नव किरण की आस में
बिखरी चांदनी के सहवास मे
धैर्य व विश्वास के साथ मे
एक नया कदम मंजिल की ओर बढायें
स्नेहीजनों का हाथ लेकर हाथ में


जैसे संवर जाती है तक़दीर शिल्पकार के हाथ से
बंधकर अटककर टूटकर उड़ती है पतंग निश्चल भाव से
रात जाती है इक नव प्रभात की आस में
जिन्दगी के अर्श पर मजबूरियों के फर्श पर
धैर्य कभी कम न हो मुश्किलों को देख कर
इक नया कदम बढ़ाएं अंधियारों को चीरकर


अगर चाहते हो जीवन में सही दिशा का ज्ञान
बन कर सारस नभ मे भरो उड़ान
याद हमेशा रखना 'अजीत' कि यह वाणी
कुछ तारो के टूटने से आसमान होता नहीं खाली

भूत को बिसार के भविष्य को संवारें हम
वर्तमान का कर उपयोग जीवन को बनाये हम
काँटों की सेज से पुष्प को चुन चले
एक स्वाति कि बूंद से मन को तृप्त करे
याद रखे हमेशा यह, आनंद यात्रा में है
गंतव्य पहुचने में नहीं,
हमारा कर्तव्य कर्म करने में है फल की चाह मे नहीं

मन मे उजियारा भर, आस का मंदिर बनायें
सहज सरल इस जीवन में उच्च विचार फैलाए
मनुज मनुज में हो प्यार फैले सुगंध संसार
आओ मिल जुल कर इस जहाँ को स्वर्ग बनायें

अजीत कुमार झा

शुक्रवार, 27 मई 2011

कोशिश करने वालों की - हरिवंशराय बच्चन

कोशिश करने वालों की






कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,


नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,


चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।


मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,


चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।


आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,


कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।


डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,


जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।


मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,


बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।


मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,


कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।


असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,


क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।


जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,


संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।


कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,


कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती


- हरिवंशराय बच्चन


क्षमा- अज्ञात

क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल


सबका लिया सहारा

पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे

कहो, कहाँ कब हारा ?



क्षमाशील हो रिपु-समक्ष

तुम हुये विनीत जितना ही

दुष्ट कौरवों ने तुमको

कायर समझा उतना ही।



अत्याचार सहन करने का

कुफल यही होता है

पौरुष का आतंक मनुज

कोमल होकर खोता है।



क्षमा शोभती उस भुजंग को

जिसके पास गरल हो

उसको क्या जो दंतहीन

विषरहित, विनीत, सरल हो ।



तीन दिवस तक पंथ मांगते

रघुपति सिन्धु किनारे,

बैठे पढ़ते रहे छन्द

अनुनय के प्यारे-प्यारे ।



उत्तर में जब एक नाद भी

उठा नहीं सागर से

उठी अधीर धधक पौरुष की

आग राम के शर से ।



सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि

करता आ गिरा शरण में

चरण पूज दासता ग्रहण की

बँधा मूढ़ बन्धन में।



सच पूछो , तो शर में ही

बसती है दीप्ति विनय की

सन्धि-वचन संपूज्य उसी का

जिसमें शक्ति विजय की ।



सहनशीलता, क्षमा, दया को

तभी पूजता जग है

बल का दर्प चमकता उसके

पीछे जब जगमग है।


अज्ञात

चारु चंद्र की चंचल किरणें- अज्ञात

चारु चंद्र की चंचल किरणें,


खेल रहीं थीं जल थल में।

स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई थी,

अवनि और अम्बर तल में।

पुलक प्रकट करती थी धरती,

हरित तृणों की नोकों से।

मानो झूम रहे हों तरु भी,

मन्द पवन के झोंकों से।



पंचवटी की छाया में है,

सुन्दर पर्ण कुटीर बना।

जिसके बाहर स्वच्छ शिला पर,

धीर वीर निर्भीक मना।

जाग रहा है कौन धनुर्धर,

जब कि भुवन भर सोता है।

भोगी अनुगामी योगी सा,

बना दृष्टिगत होता है।



बना हुआ है प्रहरी जिसका,

उस कुटिया में क्या धन है।

जिसकी सेवा में रत इसका,

तन है, मन है, जीवन है।



अज्ञात

कारवाँ गुज़र गया गोपालदास नीरज

कारवाँ गुज़र गया







स्वप्न झरे फूल से,


मीत चुभे शूल से,


लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,


और हम खड़ेखड़े बहार देखते रहे।


कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!






नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,


पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई,


पातपात झर गये कि शाख़शाख़ जल गई,


चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,


गीत अश्क बन गए,


छंद हो दफन गए,


साथ के सभी दिऐ धुआँधुआँ पहन गये,


और हम झुकेझुके,


मोड़ पर रुकेरुके


उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे।


कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।






क्या शबाब था कि फूलफूल प्यार कर उठा,


क्या सुरूप था कि देख आइना सिहर उठा,


इस तरफ ज़मीन उठी तो आसमान उधर उठा,


थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,


एक दिन मगर यहाँ,


ऐसी कुछ हवा चली,


लुट गयी कलीकली कि घुट गयी गलीगली,


और हम लुटेलुटे,


वक्त से पिटेपिटे,


साँस की शराब का खुमार देखते रहे।


कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।






हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ,


होठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ,


दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ,


और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ,


हो सका न कुछ मगर,


शाम बन गई सहर,


वह उठी लहर कि दह गये किले बिखरबिखर,


और हम डरेडरे,


नीर नयन में भरे,


ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे।


कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!






माँग भर चली कि एक, जब नई नई किरन,


ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमक उठे चरनचरन,


शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,


गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयननयन,


पर तभी ज़हर भरी,


गाज एक वह गिरी,


पुँछ गया सिंदूर तारतार हुई चूनरी,


और हम अजानसे,


दूर के मकान से,


पालकी लिये हुए कहार देखते रहे।


कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।






- गोपालदास नीरज






यह कदम्ब का पेड़ ! -सुभद्रा कुमारी चौहान

यह कदम्ब का पेड़ !







यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।


मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे।।


ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली।


किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली।।


तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता।


उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता।।


वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता।


अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता।।


बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता।


माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता।।


तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे।


ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे।।


तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता।


और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता।।


तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती।


जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं।।


इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे।


यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।।






-सुभद्रा कुमारी चौहान






ठुकरा दो या प्यार करो - सुभद्रा कुमारी चौहान

ठुकरा दो या प्यार करो







देव! तुम्हारे कई उपासक कई ढंग से आते हैं।


सेवा में बहुमुल्य भेंट वे कई रंग की लाते हैं॥






धूमधाम से साजबाज से वे मंदिर में आते हैं।


मुक्तामणि बहुमुल्य वस्तुऐं लाकर तुम्हें चढ़ाते हैं॥






मैं ही हूँ गरीबिनी ऐसी जो कुछ साथ नहीं लायी।


फिर भी साहस कर मंदिर में पूजा करने चली आयी॥






धूप-दीप-नैवेद्य नहीं है झांकी का श्रृंगार नहीं।


हाय! गले में पहनाने को फूलों का भी हार नहीं॥






कैसे करूँ कीर्तन, मेरे स्वर में है माधुर्य नहीं।


मन का भाव प्रकट करने को वाणी में चातुर्य नहीं॥






नहीं दान है, नहीं दक्षिणा खाली हाथ चली आयी।


पूजा की विधि नहीं जानती, फिर भी नाथ! चली आयी॥






पूजा और पुजापा प्रभुवर! इसी पुजारिन को समझो।


दान-दक्षिणा और निछावर इसी भिखारिन को समझो॥






मैं उनमत्त प्रेम की प्यासी हृदय दिखाने आयी हूँ।


जो कुछ है, वह यही पास है, इसे चढ़ाने आयी हूँ॥






चरणों पर अर्पित है, इसको चाहो तो स्वीकार करो।


यह तो वस्तु तुम्हारी ही है ठुकरा दो या प्यार करो॥






- सुभद्रा कुमारी चौहान






आशा का दीपक -दिनकर

आशा का दीपक



वह प्रदीप जो दीख रहा हइ झिलमिल, दूर नहीं है;


थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।






चिनगारी बन गयी लहू की बूँद जो पग से;


चमक रहे, पीछे मुड़ देखो, चरण-चिन्ह जगमग से।


शुरू हुई आराध्य-भुमि यह, क्लान्ति नहीं रे राही;


और नहीं तो पाँव लगे हैं क्यों पड़ने दगमग से?


बाकी होश तभी तक जब तक जलता तूर नहीं है;


थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।






अपनी हड्डी की मशाल से हृदय चीरते तम का,


सारी रात चले तुम दुख झेलते कुलिश का।


एक खेय है शेष, किसी विध पार उसे कर जाओ;


वह देखो, उस पार चमकता है मन्दिर प्रियतम का।


आकर इतना पास फिरे, वह सच्चा शूर नहीं है;


थककर बाइठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।






दिशा दीप्त हो उठी प्राप्त कर पुण्य-प्रकाश तुम्हारा,


लिखा जा चुका अनल-अक्षरों में इतिहास तुम्हारा।


जिस मिट्टी ने लहू पिया, वह फूल खिलाएगी ही,


अम्बर पर घन बन छाएगा ही उच्छ्वास तुम्हारा।


और अधिक ले जाँच, देवता इतन क्रूर नहीं है।


थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।






-दिनकर






जो भरा नहीं है भावों से,  बहती जिसमे रसधार नहीं | वो ह्रदय नहीं वह पत्थर है, जिसमे स्वदेश का प्यार नहीं |

मंगलवार, 11 जनवरी 2011

वह नगरी जिसकी पहचान सात वार और नौ त्यौहारों से होती  है, वह नगरी जिसे महाश्मशान के नाम से जाना जाता है, विश्वनाथ के रूप में जहाँ स्वयं त्रिनेत्रधारी भगवान भोले शंकर निवास करते है और जो सर्व शिक्षास्थली के रूप में विश्व भर में जानी  जाती है- उस पावन शिव की नगरी कि पहचान वाराणसी अर्थात काशी के रूप में होती है| भारत की आध्यात्मिक राजधानी के रूप में काशी की पहचान होती है, यह नगरी हम सभी भारतीयों के मन मंदिर में रची बसी है|  भारत के महानतम वैज्ञानिको में एक डॉ शांति स्वरुप भटनागर ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलगीत के माध्यम से संपूर्ण काशी नगरी की ही व्याख्या कर दी है| उनके शब्दों में

मधुर मनोहर अतीव सुन्दर, यह सर्वविद्या की राजधानी ।
यह तीन लोकों से न्यारी काशी । सुज्ञान धर्म और सत्यराशी ।।
बसी है गंगा के रम्य तट पर, यह सर्वविद्या की राजधानी ।.........
यहाँ की है यह पवित्र शिक्षा । कि सत्य पहले फिर आत्मरक्षा ।।
बिके हरिश्चन्द्र थे यहीं पर, यह सत्यशिक्षा की राजधानी ।.............
यह मुक्तिपद को दिलाने वाले ।सुधर्म पथ पर चलाने वाले ।।
यहीं फले फूले बुद्ध शंकर, यह राजॠषियों की राजधानी ।............
सुरम्य धारायें वरुणा अस्सी ।, नहायें जिनमें कबीर तुलसी ।।
भला हो कविता का क्यों न आकर, यह वाक्विद्या की राजधानी ।..........


गंगा के सुरम्य तट पर अवस्थित घाट हो या मंदिरों में घंटों की मनोरम ध्वनि  , ॐ नमः शिवाय के उद्घोष के साथ पूर्व दिशा में उदयाचलगामी   भगवान भास्कर को जल अर्पित इस नगरी की सुबह होती है| ब्रह्ममुहूर्त से गोधूली तक ऐसा प्रतीत होता है की संपूर्ण काशी नगरी भक्ति भाव से परिपूर्ण हो एक अभिनव जीवन के प्रारंभ होने का सन्देश देती है | निष्काम, निष्कपट, एवं निश्छल गंगा की अविरल धारा सृजन, संबल, और सौहादर्य के साथ जीने की सीख देते हुए सतत आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है | जीवन सतत चलने का नाम है,  इस भावना से ओत प्रोत काशी नगरी प्राचीन काल से आज तक हमारे आध्यात्मिक सोच को सदैव एक नयी दिशा देती आ रही है |

काशी   की सुबह की अपनी ही महत्ता है | एक ऐसी नगरी जहाँ गंगा के पश्चिमी तट पर खड़े हो पूर्व में उदीयमान भगवान आदित्य का जलाभिषेक परम पावनी गंगा जल से किया जाता है | अतः कहा जा सकता है कि प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति, साधना, एवं शिक्षा के ध्रुव के रूप में काशी का अपना एक मूर्धन्य स्थान रहा है |

पंडित विद्यानिवास मिश्र के शब्दों में " ऐसा कोई भी समय नहीं आएगा कि काशी में कोई मूर्धन्य साधक न हो, मूर्धन्य विद्वान न हो, मूर्धन्य कलाकार न हो, मूर्धन्य रचनाकार न हो, मूर्धन्य वंचक न हो, मूर्धन्य पाखंडी न हो, मूर्धन्य अवधूत न हो, मूर्धन्य जौहरी न हो- ऐसे मूर्धन्य व्यक्तियों की श्रृंखला ही वस्तुतः काशी है |

वास्तव में काशी ओर गंगा सदियों से ही भारतीय परम्पराओं की वाहिनी रही है | 

काशी की भौगोलिक स्थिति 

काशी अर्थात वाराणसी नगरी भारत के उत्तेर प्रदेश राज्य के पूर्वी छोर पर बसा है | सामान्यतया पूर्वांचल के केंद्र में स्थित काशी नगरी पर पड़ोसी राज्य बिहार का प्रभाव सुस्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है | गंगा के उत्तरी तट पर अर्धचन्द्राकार रूप में बसा यह शहर २५'१८' उतरी आकांश एवम ८३'१' पूर्वी देशांतर पर सिथ्थ है १ इस नगरी से करीब १३० किलोमीटर पर सिथत इलाहाबाद (प्रयाग ) से भारतीय मानक समय रेखा गुजरती है, जिससे यह स्वत: ही सिद्ध हो जाता है सम्पूर्ण भारतीय समय पद्धति  पर इस  नगरी का कितना प्रभाव है |


परम पावनी गंगा के तट पर बसी काशी नगरी में गंगा की अपनी एक भौगोलिक विशेषता है| कहा जाता है की काशी भगवान शंकर के त्रिशूल पर बसी है| काशी में गंगा का बहाव दक्षिण से उत्तर की ओर है| इसी कारण यहाँ की गंगा को उत्तरवाहिनी गंगा के नाम से भी जाना जाता है| सामान्यतया गंगा नदी में जल का प्रवाह उत्तर पश्चिम हिमालय से दक्षिण पूर्व बंगाल की खाड़ी की ओर होता है| चूँकि काशी में इसका प्रभाव विपरीत दिशा में है, अत: यह काफी धीमा है और इस कारण दैनिक उपयोग हेतू यहाँ पानी हमेशा बना रहता है | काशी ही एक मात्र ऐसी नगरी है जिसकी सीढ़ियों से गंगा  कभी भी नहीं हटी है जबकि अन्य शहरों में नदियों द्वारा अपना रास्ता बदलते रहने से वे दूर हटती जा रही है |


काशी नगरी तीन और से नदियों से धिरी है जिससे यह प्रतीत होता है की स्वयं प्रकृति ने इस अदभुत नगरी की किलेबंदी कर राखी है | नगर का पूर्वी भाग गंगा नदी, उत्तरी भाग वरुणा नदी एवं दक्षिणी भाग अस्सी नदी से धीर हुआ है | काशी की एक और विशेषता है की यहाँ गंगा का बहाव वलयाकार है | यदि कोई नदी वलयाकार अथवा सर्पिलाकार रूप में प्रवाहित होती है तो उसके तटों पर बसे शहरो में प्राय: जल संकट का सामना नहीं करना पड़ता है | इसके विपरीत यदि नदियाँ सीधी बहती है तो समय के साथ साथ वह नदी नगर/ शहर से क्रमश: दूर होती जाती है और फलस्वरूप कुछ वर्षो पश्चात् उस नगर/ शहर में जल संकट का सामना करना पर सकता है | काशी इस दृष्टिकोण से एक भाग्यशाली नगरी है | काशी में गंगा का बहाव देखा जाय तो हम पते है की यहाँ मिर्जापुर की ओर से अति गंगा की धारा सर्वप्रथम रामनगर के पूर्वी किनारों से टकराती है ओर फिर उलट कर वाराणसी के घाटों से टकराती है |


दर्शनीय स्थल 


१. काशी  विश्वनाथ मंदिर (गौदोलिया): वारानाशी (जिसे भारत की संस्कर्ती राजधानी की भी संज्ञा दी जाती है ) मे स्थित शिव के द्रव्दाश जयोतिर्लिंगो में एक गंगा के पशिचमी तट के द्शास्व्मेध घाट के तट पर अव्शिथ्त विस्वनाथ मंदिर को भगवान भोले  शंकर की निवाश स्थली मन गता है 1  काशी विस्वनाथ मंदिर लाखो - करोडो भारतीयों के शारदा एवं विश्वास का एक अनुपम स्थल है एवं भारत के पवित्रतम मंदिरों में एक है 1 काशी विस्वनाथ ज्योर्तिलिंग का दर्शन अन्य काशी विस्वनाथ ज्योर्तिलिंग का दर्शन अन्य सभी  ज्योर्तिलिंग की अपेछा अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है | काशी विस्वनाथ मंदिर सांस्कृतिक परम्पराओ एवं उच्चतम अध्यात्मिक मूल्यों का कालांतर से एक जीवंत दृश्य दर्शाता है 1 काशी  विश्वनाथ के वर्तमान मोजूद मंदिर का पुनरोहन इन्दोर की महारानी अहिल्याबाई होलकर  ने १७८० में कराया था १ १८३९ में पंजाब के शासक रंजित सिंह ने इस मंदिर के गुम्बजो को सोने से अलंकृत करवाया | यह मंदिर प्रात:२.३० बजे मंगल आरती के लिए खोला जाता है तथा प्रात: ३.०० से ४.०० बजे के दौरान टिकेट के साथ दर्शक आरती में शामिल हो सकते है | बाबा विश्वनाथ के दर्शन का सामान्य समय ११.३० से १२.०० बजे तक है | ११.३० से १२.०० बजे मध्यान भोग आरती हेतू मंदिर के पट बंद कर दिए जाते है और पुन: १२-७ बजे सांय  काल तक यहाँ दर्शन किये जा सकते है | संध्या ७-८.३० तक saptarishi आरती होती है | और पुन: ८.३०-९.०० बजे तक जनता दर्शन कर सकती है | ९ बजे श्रृंगार  भोग आरती प्रारंभ होती है और ११ बजे मंदिर के कपट बंद हो जाते है |


अन्नपूर्णा  मंदिर :     काशी विश्वनाथ मंदिर के निकट ही माता अन्नपूर्णा का भव्य मंदिर है | यह मंदिर भी काशी के महत्वपूर्ण मंदिरों में एक है | अक्षय तृतीया (परशुराम जयंती) को इस मंदिर में श्रद्धालु भक्तो की अपार भीड़ माता के दर्शन हेतू लगी रहती है | ऐसी मान्यता है की माता की कृपा जिस पर हो जाती है उसके घर का अन्न भंधर कदापि खली नहीं होता है |


कल भैरव मंदिर (विशेश्वरगंज): काशी विश्वनाथ मंदिर से लगभग १.६ किमी उत्तर में काल भैरव का अति प्राचीन मंदिर भी दर्शनीय है | काल भैरव को काशी का कोतवाल भी कहा जाता है | ऐसी मान्यता है की बाबा विश्वनाथ के दर्शन पूर्व काल भैरव से अनुमति लेनी आवश्यक है |


संकट मोचन मंदिर (लंका के निकट): राम भक्त हनुमान जी का यह मंदिर सोलहवी शताब्दी में तुलसीदास द्वारा स्थापित किया गया | वाराणसी के दक्षिणी भाग में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के निकट अवस्थित इस मंदिर के बारे में यह कहा जाता है की जो यहाँ सच्चे मन से प्राथना करता है, उसकी प्राथना अवश्य ही पूरी होती है | प्रत्येक मंगलवार  एवं शनिवार को यहाँ हजारों की संख्या में श्रद्धालुओ की भीड़ उमड़ पड़ती है | ऐसी मान्यता है की जो मनुष्य शनि के कोप से पीड़ित है, वह संकटमोचन मंदिर जाकर अवश्य ही ठीक हो जाता है | इस मंदिर की एक विशेषता है की यहाँ हमुमान एवं राम की प्रतिमा आमने सामने है |


दुर्गा मंदिर एवं दुर्गा कुण्ड: वाराणसी में स्थित दुर्गामंदिर यहाँ के प्राचीन मंदिरों में एक है जो नगर शैली में निर्मित है | शिखरों से सुशोभित लाल रंग में यह मंदिर अपनी प्राचीनता का एहसास कराती है |यह मंदिर एक आयताकार कुण्ड के पास अवस्थित है, जिसे दुर्गा कुण्ड कहा जाता है | पुरानो में ऐसी मान्यता है की देवी दुर्गा यहाँ निवास करती थी तथा इस पवित्र शहर की रक्षा करती थी | यह भी कहा जाता है की माँ की वर्त्तमान प्रतिमा स्वयं प्रकट हुई है | नवरात्रों के समय इस मंदिर की शोभा बहुत निराली होती है |


तुलसी मानस मंदिर : दुर्गा मंदिर के आसन्न में अवस्थित तुलसी मानस मंदिर भगवान राम को समर्पित है |  इस मंदिर की सबसे खास विशेषता है कि इस मंदिर के दीवारों पर संपूर्ण रामचरित मानस उद्हरित है | श्वेत संगमरमरो से सुसज्जित इस मंदिर का निर्माण १९६४ में हुआ था | इस मंदिर कि वास्तुकला अपने आप में दर्शनीय है | ऐसी मान्यता है कि इस मंदिर का निर्माण उसी स्थान पर किया गया है जहा तुलसी दास ने रामचरित मानस कि रचना की यह मंदिर प्रात: ५:३० से १२:०० तक तथा पुन: ३:३० से ९ बजे तक दर्शन हेतू खुला रहता है |
नया विश्वनाथ मंदिर :- काशी हिन्दू विश्व विधालय के बीचो विनय अवासिथ्त भगवान शिव के इस मंदिर को बिरला मंदिर भी कहा जाता है, जिसके सहायता से इस मंदिर का निर्माण करा गया है | नया विश्वनाथ मंदिर पुराने  विश्वनाथ मंदिर कि अनुकृति है | स्वेत संगमरमर के निर्मित इस मंदिर कि संकल्पना माननीय मदन मोहन मालवीय जी कि थी |
भारत माता मंदिर :- भारत माँ को सम्र्परित यह अपने आप में एक मात्र मंदिर है जो महात्मा गाँधी काशी विधापीठ के निकट है | इस मंदिर का निर्माण बाबु शिव प्रसाद गुप्त ने किया और इसका उद्घाटन १९३६ में महात्मा गाँधी द्वारा किया गया | भारत माँ के प्रतिमा अविभाज्य भारत, पर्वत सृख्लाओ , मैदानों एवं सागर की प्रतिक है |
कर्दमेश्वर मंदिर - पंचकोसी मार्ग, कंखा पर सिथ्त यह मंदिर गाहडवाल युग का एक मात्र सुरक्षित मंदिर है | यह  गाहडवाल मंदिर वास्तु का अप्रतिम साक्ष्य है |
काशी के प्रमुख पर्व / त्योहार :- वाराणसी भारतीय परम्पराओ